27.9.16

सोनापानी

तुम कहते थे वहां शोर नहीं
और भीड़ भाड़ का ठौर नहीं
वहां ख़ामोशी के सोते हैं
और सन्नाटों के डबरे हैं

मैंने सोचा चल देख आएं

पगडंडी के उस कोने पर
इक स्लेटी पत्थर का घर है
जहां झबरू कुत्ता रहता है
जो खुद को झुमरू कहता है

हाँ वो चुपचाप ही रहता है

वहां तितली के हैं ठाठ सही
वहाँ फूलों की है जमात बड़ी
वहां हिल मिल के हैं चीड़ खड़े
और चिड़ियों के भी नीड़ कई

किसने चिड़िया घर खोला है?

वो चिड़िया बड़ी बातूनी हैं
तड़के तड़के उठ जाती हैं
चकचकचक बकबक कर कर के
सूरज को रोज़ उठाती हैं

वो लड़ती हैं या गाती हैं?

और सूरज जब सो जाता है
झींगुर के कुल उठ जाते हैं
अपने वायलिन चेलो ले कर
वो क्या कम शोर मचाते हैं?

वो जैज़ के प्रेमी लगते हैं

शहरों के आसमान में तो
फिर तारे गिनना मुमकिन है
पर उधर की रात की बात न कर
उसके तारे तो अनगिन हैं

वो आसमान ही दूजा है

तुम तो कहते थे शोर नहीं
हाँ ट्रैफिक का न शोर सही
वहां भीड़ भाड़ का ठौर नहीं
तितली चिड़िया की भीड़ तो है

बड़ी चहल पहल है जंगल में

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