20.4.06

Matargashti

मटरगश्ती

आ चाल कोई चल के, फिर जिंदगी जगायें
चोरी से धर दबोचें, धप्पा उसे लगायें

सूरज को ढप से ढक दें, लंगड़ से फिर उतारें
बादल किनारे कर के, चंदा को कंचा मारें
चल आसमां को छानें, कुछ तारे बीन लायें

बाहों को हम उठा कर, भर लें हवा बगल में
दौडें ढलान पर आ, इस घास पर उछल लें
बगिया के हाथ से चल, कुछ फूल छीन लायें

नदिया की खींच चुन्नी, मफ़लर उसे बना लें
तकिये में भर के बादल, एक दूसरे को मारें
कपड़े उतार फेंके, बारिश में चल नहायें

बन कर के हम मवाली, खेंचे कनक की बाली
अमरूद सारे झाड़ें, जबरन झुका के डाली
कोयल से छुप-छुपाकर कुछ अम्बियाँ चुरायें

कंकर को मार के चल, कोई गिलहरी डरा दें
खिड़की को खट से खोलें, कोई कबूतर उड़ा दें
पाड़े के पीछे दौड़ें, पिठठू उसे बनायें

कैक्टस से सूत कर के माँझा जरा चढ़ा लें
चीलों को लूट के हम कन्ने उन्हें लगा दें
अंधड़ से आज चल के पेंचे ज़रा लड़ायें

कानों में कुर्र से सीटी, तिनका कोई घुसायें
आ चाल कोई चल के, फिर जिंदगी जगायें

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Sorry, there's no English translation this time. The darn poem has way too many ethnic layers to be translated effectively, and yet manage to convey the original feel. At least, I couldn't do it.

5 comments:

Shankari said...

Delightful! So enjoyable in the context that you shouldn't try and translate this :)

Anonymous said...

वाह जनाब वाह। पढ कर मटरगश्ती करने का मन करने लगा।
Felt what I missing out on.
(Rant: Do post them in unicode. So that browsers can render them as text. Images are more portable but they do not render text well on lcd screens, making it a bit hard to read. Although this one was hard to resist.)

vivek said...

wah wah wah wah!
har triveni padhein, kunthasth phir dimaag mein usse bitha lein.
phir jab kabhi iss begaani duniya se uktaayein,
toh bas ek ek kar ke nikaalein, aur unmein jho jaayein!

chhaa gaye aap!!!

Anu said...

Too good Abhinav...matargashti to ekdum jeevant kar diya hai tumne...

Anu said...

Hi Manish, my mistake, I reached your page through the Nazrana network on Ryze and was somehow confused that this poem was posted by someone called 'Abhinav', sorry about that...

-Anu