कभी
दिन हुआ करते थे दोस्त
गरमी की छुट्टियों की भरी दुपहरियाँ
छानती थी सरकंडों के झुरमुटों में
तितलियाँ
अलसाते रेत के टिब्बे बुलाते थे हमको
अपने मखमली मुलायम पेट पर
कूदने को
पहचानने को थे कितने नए रंग
और सुलझाने को अनगिनत कहानियों के
तिलस्म
और आज
हर दिन है प्रतिद्वंदी
जिसकी टांगों की कैंची में थक कर
जकड़ी है ज़िन्दगी यूँ कि साँस लेना भी
दुशवार
हर सुबह की पीठ पर वादों इरादों का भार
और शाम की साडी का छोर थामे खड़ी है
थकान, हार
सारे रंग हैं उड़े उड़े, खुशबुयें उकताई
और कहानियों के शीशों पर चडी समझ की
काई
क्या किसी को मालूम है ऐसा कोई नुस्खा
जो आज में घोल दे गुजरे कल का स्वाद
और एक बार फ़िर कर दे हमें जिम्मेदारियों से
आज़ाद
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