मेरे पुरखे थे
जंगल के जाये
उसकी जायदाद के उत्तराधिकारी
रात ओड़ कर
चाँद से बतियाने वाले
शिकारी
मैं
जाने क्या सोच कर
शहर में बस गया
अब शिकार पे नहीं
टुकडों पे जीता हूँ
कभी पुचकारा जाता हूँ
कभी दुत्कारा जाता हूँ
कभी पागल हो दौड़ता हूँ
अमीरों की गाड़ियों के पीछे
कभी कुचला जाता हूँ
उन्ही के नीचे
सड़कों पे सोता हूँ
नस्ल बढाता हूँ
और अक्सर
वहीँ मर जाता हूँ
हाँ, और एक फर्क है
अब मैं भेड़िया नहीं
कुत्ता कहलाता हूँ
Image: Mary F. Calvert / The Washington Times
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