8.7.13

ज़ंग

क़वायद करते रहते हैं
क़िले की उँची दीवारों पे  
नींद घुसने नहीं पाती 
कभी तो घंटों लग जाते हैं 

मगर फिर घुस ही जाती है 
बिला आवाज़, चुपके से
बड़ी चालाक है शातिर 
ख्यालों को खबर होती नहीं 

जिन्हें चुपके से मौत आती है 
वो  साए बन क़वायद
ज़ारी रखते हैं, वो ख़्वाबों की
शक्ल को ओड़ लेते हैं 

ख़यालों और नींदों की 
ये ज़ंग काफ़ी पुरानी है 

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