कभी लफ़्ज़ों के गुब्बारे बना के हाथ में देते
कभी तकिये बुने ऐसे जो आंसू सोख थे लेते
कभी सिरहाने के नीचे थे रखे नज्मों के लोहे
कभी तुम उलझे से अहसास मेरे बांध देते थे
न जाने चाँद को तुमने थे कितने नाम दे डाले
तेरी नज्मों से लेकर लफ्ज़ हमने कितने ख़त लिखे
समंदर दुनिया का हम तैर कर यूँ पार न करते
अगर काँटों के दरिया को यूँ तुम गुलज़ार न करते
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