21.4.14

कुछ तनहा शेर

दुश्मन को ना दोस्त बताओ, लाख बताया ना समझी
उनको उनकी समझ मुबारक, हमको अपनी नासमझी

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कभी मंदिर में बैठे है, कभी मस्जिद में सोवे है
उसे तो शौक है बस घर बदलते रहने का

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इबादत हम से सीखो बस करो इतना ख़ुदाबंदों
खुदा को यार समझो, यार को मानो खुदा बन्दों

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ज़रा सी बदली को तू घुप्प सियाह रात ना कह
तू कायनात का जाया है ऐसी बात ना कह

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पिंजरे की तीलियों से क्यूँ चिपकता है ये बाज़
आसमां को पिंजरा अब क्यूँ समझता है ये बाज़
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तेरे माथे की इस त्योरी को
मैं हथेली से मिटा दूँ तो
मेरे नाम में जो चाँद की बिंदी है
तेरे माथे पे फिर लगा दूँ तो
तेरे होंठों की उदासी का
रुख मोड़ मुस्कां बना दूँ तो
तेरा नाम अपने नाम से
मैं जोड़ घर को बसा लूँ तो

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