18.8.15

गुलज़ार के लिए

चांदी के अस्सी तारों से
ये बुनी किसी ने किताब है

माँ कसम, गुलज़ार सी महकती है

***

उसके बालों में वक़्त की चांदी
उसकी आँखों में ख्वाब की खेती
उसकी बातों में जैसे इंद्रधनुष

उसकी स्याही से खुशबू आती है
उसकी निब से नमक सा रिसता है
उसकी कॉपी में चन्दा छिपता है

उसके गीतों से झरने बहते हैं
औ बहर में बहारें सजती हैं
या त्रिवेणी पे कुंभ लगते हैं

उसके लफ़्ज़ों में जितना लोहा है
उसके लफ़्ज़ों में उतना पानी है
उसके मिसरों का कोई तोड़ नहीं

उसका तो नाम तक महकता है

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