18.8.15

नज़्म

वो तल्ख़ सा एक वाकया
जो था सीने में धंसा हुआ
वो तंज़ सा एक वाकया
किसी फांस सा फंसा हुआ
कि वो वाकया जो ख़याल में
मिरे, नश्तरों सा चमकता था

जिसे वक़्त से भी कुरेदा था

उसे तसव्वुर की आग ने
कोहे नूर सा बना दिया
घिस घिस के सिल पर सालों की
मोतियों का सिला दिया
फ़िर वाकये को लफ्ज़ का
एक मुलम्मा सा चढ़ा दिया

उसे नज़्म दुनिया कहती है

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