20.10.15

सुनो

सुनो जब शाख से
गिरते हैं पत्ते
जैसे आंसू
सुनो जब कान में
बहती हवा
सीटी बजाती है
किसी बिसरी सी धुन में
सुनो गंगा की रेती पे
चमकते मरमरी पत्थर
चुभ जाते हैं तलवों में
मरासिम से
सुनो जब रुत बदलती है
तो लम्हे
छूट जाते हैं
दुछत्ती पे संदूकों में
सुनो यादें तुम्हारी
मेरे बिस्तर पर
सोई सलवट
जगा रखती है मुझको
रात भर न
रात कटती है
सुनो आवाज़ सुनने को
मैं सदियों से खड़ा हूँ
उसी संकरे से रस्ते पे
जहां छोड़ आये थे
सुनो मैं डाल हूँ वो
गुलमुहर की जो
तुम्हें खुद पर सजाने को
तरसती है
मगर बीता वसंत हाय
सुनो क्या आँख तेरी भी
होती है नम
सोच कर मुझको
सुनो तुम साथ होते तो
मेरी इस शाख पर
उगते नए पत्ते
अभी तो सिर्फ पतझड़
सुनो जब याद आती है
तेरी तो
नज़्म बहती है
इन आँखों से
बड़ी मिन्नत से
इन्हें खामोश करता हूँ
सुनो मेरी
नींदें हैं कच्ची
ये पौ के फूटने से
पहले ही
टूट जाती हैं
मेरे दिल सी
मरी ये नींद भी
टूट जाती है
अभी तो रात बाकी है
सुनो जब हवा भी
उतारे चप्पल चलती है
दबे पाँव
मैं अक्सर जाग जाता हूँ
तुम्हें कुछ कहने को जो
अनकहा है
इतने सालों से
सुनो

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