8.3.16

तू दुर्गा बन

तू धरा रूप धारण करती
नित भार बड़ा भारण करती
उर-रक्त, दूध से सींच सींच
उर्वरा सतत पोषण करती

पर ध्यान रहे तुझ से पोषित
न कर पाएं तुझ को शोषित
जब बात उठे अधिकारों की
न रह जाए तू  ही कुंठित

पावनता सिद्ध कराने को
मत देना अग्नि परीक्षा अब 
उस मर्यादापुरुषोत्तम की
मर्यादा जाती है जाए

वो धर्मराज होगा तो हो
तू नहीं किसी की संपत्ति
चाहे वो फिर हो तेरा पिता
चाहे वो भाई हो या पति

क्यूँ वासुदेव का वंदन कर
क्यूँ नाम पुकारे क्रंदन कर
अंधे पुरुषों की अंध सभा
में स्वयं चीर का रक्षण कर

वो तुझे निर्भया कह कह के
दे कर के झूठी सी इज्ज़त
फिर लूट के न फेंकें तुझको
कहीं राह पे अब यूँ क्षत विक्षत

तू पांचाली सीता न बन
तू सबला है अबला न बन
तू धरा नहीं अधरा भी है
तू शक्ति बन तू दुर्गा बन

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