11.4.16

कंचनजंगा

यहाँ सब गर्दिशों में घूमते से
खुदी में गुमशुदा, कुछ ढूंढते से
बड़ी रफ़्तार में हैं, भागते हैं
मशीनों के धुएं को फांकते हैं
सराबों में, अज़ाबों में फंसे है
किसी ख्वाहिश के दलदल में धंसे हैं
इन्हीं सब बेशुमारों में शुमारी है मेरी भी
इन्हीं ख़्वाबों सराबों की खुमारी है मेरी भी
मगर जब से मिला तुझको

मगर जब से मिला तुझको, ज़रा कुछ तो जुदा है
शहर की बेशुमारी में कोई जो अलहदा है
है कोहरा गहरा तो उतना ही लेकिन
वहां कोहरे के ऊपर कुछ चमकता है
ज़हन की बेतहाशा कशमकश में
तू एक बर्फानी चोटी बन खड़ी है
पहन के बर्फ़ सर पे आँख मूंदें
तू सदियों से यहाँ खामोश सी है
मैं कितनी गर्दिशों में घूमता था
घने कोहरे में जाने ढूंढता क्या
मैं तुझको पा गया हूँ
ओ मेरी कंचनजंगा


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