घर कभी बुज़ुर्गों सा बड़ा होता है
मज़बूत नींव पे खड़ा होता है
बालों में सालों की धूप लिए
कमरों में समझदारी की नमी लिए
झुकी हुयी कमर में झूले टाँगे
दे देता है सब कुछ बिन मांगे
घर कभी बाप सा ज़िम्मेदार होता है
कभी छत कभी दीवार होता है
बुरे वक़्त की बारिश में छाता
बचपन के पहले क़दमों को अहाता
कन्धों पे सीढ़ियाँ उठाये
क़दमों को फर्श थमाए
कुछ नहीं कहता है
अपनों के लिए सब सहता है
तो कभी घर माँ की गोदी होता है
जिसमें जीवन चैन से सोता है
हर ज़िद को लेता है मान
जैसे छाँव में खाट बिछाये दालान
या रसोई में गरमागरम परोसा
कभी न टूटने वाला भरोसा
पर कभी ये घर बच्चा होता है
रात दिन अरमानों के पौधे बोता है
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