11.2.13

चौपाया

हे मेट्रो में सम्मुख बैठी हिरणी सी तरुणी
मैं तुम्हें कुछ पल एकटक देखना चाहता हूँ
यदि तुम अन्यथा न लो
तो तुम से एक कविता मात्र की
प्रेरणा लेना चाहता हूँ
तुम्हारी सुराहीदार सुतवां सु-ग्रीवा को
तुम्हारी गुलाब की पत्ती सी तीक्ष्ण आँखों को
कोई नवीन उपमा देना चाहता हूँ  

सच, तुम्हें सताने का
किसी निर्जीव वस्तु की भांति
भोगने, फेंकने का
चोट पहुंचाने का
या तुम्हारा अपमान करने का
मेरा किंचित भी ध्येय नहीं

मगर तुम्हारी नज़र में
भय और क्रोध का गरल सा मिश्रण देख
मैं अपनी नज़र फ़ेर लेता हूँ

सत्यानाश हो उस बलात्कारी का
जिसने 'निर्भया' के साथ बलात्कार कर डाला
स्त्री-पुरुष के बीच की सहजता का भी
और स्त्री की नज़र में हर पुरुष का कद काट कर
उसे दोपाये से चौपाया बना डाला
http://www.photocase.com/stock-photos/171937-stock-photo-woman-human-being-man-cat-animal-adults.jpg

1 comment:

Anonymous said...

An understandable perspective.